Sunday, May 31, 2015

बॉबी [चैप्टर 2]

[ पहली कड़ी यहाँ पढ़े - चैप्टर 1

चाय आ गयी थी. दोनों धीरे धीरे चाय सुड़कने लगे थे.

“मुझे लगता है मैंने तुम्हे पहले कही देखा है.” चाय पीते हुए अक्की ने अपनी नज़रें उसपर टिकाई.

ईशांत हडबडा सा गया. उसके हाथ अचानक से सुन्न से पड़ने लगे थे.

अक्की उसकी ये हडबडाहट देखकर एक मक्कार हंसी के साथ बोला, “चिल्ल यार! मैं तो मजाक कर रहा था. बस वेट कर रहा था कि तुम अपनी बैक स्टोरी सुनाओ या कुछ घबरा कर अपने मुंह अपनी ही सफाई देना शुरू कर दो...”

इससे पहले कि ईशांत कुछ बोल पाता, एक काली टोयोटा क्वालिस आकर उनके सामने रुक गयी. गाड़ी के काले शीशे नीचे सरके और अन्दर से एक लड़की ने उन दोनों की ओर देखा. कंधे से हलके नीचे झलके उसके काले बाल उसकी काली टर्टलनेक पर फब रहे थे. ईशांत ने शंका से और अक्की ने बेतकल्लुफ़ी से उसे देखा.

लड़की ने कुछ पलों तक दोनों को घूरा और गियर बदलते हुए पूरी धौंस के साथ बोली, “गाड़ी में बैठो.”

उसकी हुक्मरानी बात सुनकर अक्की तो खड़ा हो गया लेकिन ईशांत ने शंकित होकर पूछा, “मुझसे कह रही हो?”

“हाँ!” लड़की ने संक्षिप्त जवाब दिया.

“अरे बैठो यार!” अक्की तब तक गाड़ी के सामने का दूसरी तरफ वाला दरवाज़ा खोल चुका था, “टेंशन मत लो. मैं हूँ न..”

लड़की ने ग़ज़ब की फुर्ती के साथ दरवाज़ा बंद किया और तेवर के साथ बोली, “तुम्हारे दादा की गाडी नहीं है. पीछे बैठो दोनों.” फिर वह सबको सुनाने के अंदाज़ में बुदबुदाई, “पता नहीं, नमूनों को उठाने के लिए हमेशा मुझे ही क्यों भेजा जाता है...  ”

“और सुनो..!” हर एक पल का मज़ा लेते हुए अक्की पिछली सीट पर बैठते हुए बोला, “पहले लड़के लड़कियों को उठाते थे, अब लडकियां लडको को उठा रही है, “कलियुग है! घोर कलियुग!”

लड़की ने अचानक एक पिस्तौल निकाली और उसमें मैगज़ीन लोड करके अक्की की ओर तानते हुए पूरी नफरत के साथ कहा, “अगर दुबारा तुम्हारे मुंह से आवाज़ निकली तो बोलने के लायक नहीं छोड़ूंगी.”

उसके गुस्से का मजाक उड़ाते हुए अक्की दांतों से होंठ काट कर चुप हो गया. उससे हटा तो लड़की का ध्यान ईशांत पर गया जो अभी भी बाहर ही था. लड़की ने उसे देखकर खीझते हुए कहा, “तुम्हें इनविटेशन कार्ड देना पड़ेगा क्या..?”

ईशांत हडबडाया हुआ सा पीछे की सीट पर अक्की की बगल में बैठ गया. लड़की की पिस्तौल देखकर अक्की शांत हो गया था लेकिन जो चुप हो जाए वो अक्की कहाँ... कुछ मिनट चुप रहने के बाद उसकी जुबान फिर खुली, लेकिन इस बार ईशांत के लिए. “भाई,” उसने ईशांत से कहा, “मैंने तो अंदाज़ा नहीं लगाया था कि तुम भी उसी फ़ोन कॉल पर शहीद होने निकल पड़े हो.”

ईशांत ने कोई जवाब नहीं दिया. लेकिन वह इतना समझ चुका था कि उसे और अक्की को फ़ोन करके ज़िन्दगी में कुछ शानदार करने का लालच देकर रात के २ बजे दिल्ली-आगरा हाईवे पर बुलाने वाली एक ही लड़की थी.
जो भी था... और जैसा भी हो रहा था... ईशांत की दिलचस्पी ज़िन्दगी में मसलों में वापस आने लगी थी...

“बोल न भाई...” अक्की ने जोर से कहा तो ईशांत की तन्द्रा टूटी, “खुद से बाते करके बोर हो गया. आई वान्ना नो योर स्टोरी...”

“कुछ नहीं.” ईशांत ने ठंडी आह भरकर कहा.

“इश्क़ का मामला लगता है मुझे तो.” अक्की ने अपनी एक आँख दबाते हुए ईशांत को छेड़ा. ईशांत फिर भी चुप ही रहा.

ड्राईवर की सीट पर बैठी वह लड़की बहरों सा बर्ताव कर रही थी मानो उसे अक्की की बाते सुनाई ही न दे रही हो. ईशांत को शक था कि हो न हो इसी लड़की ने उसे फ़ोन किया था लेकिन अक्की को पक्का यकीन था फ़ोन पर जिसकी आवाज़ उसने सुनी थी वह किसी और लड़की की थी. उन दोनों के मन में चल रहे कई सवालों से अनजान बनी वह लड़की चुपचाप गाड़ी चलाये जा रही थी. गाड़ी के अन्दर रौशनी थी और उसी रौशनी में ईशांत सामने के शीशे पर उभर रही लड़की के चेहरे को पढने की कोशिश कर रहा था. उसका चेहरा अजीब तरीके से कठोर सा था. मतलब उसमे कोमलता या कमनीयता नाम की चीज़ नहीं थी. देखने से ही उसके जबड़े काफी सख्त लग रहे थे. उसके होंठ अजीब से रूखे और सूखे से थे. उसके नीचे वाले होठों के दाई तरफ कटे का एक हल्का सा निशान था जिसे छुपाने की शायद उस लड़की ने कोई कोशिश नहीं की थी. उसकी आँखें उदास जैसी थी. उसके दाए गाल पर अजीब से छोटे छोटे गड्ढे थे. शायद मुंहासों के... लेकिन मुंहासों के गड्ढे दोनों गालों पर होने चाहिए थे न.. तो फिर ये गड्ढे... ईशांत गौर से देखने के चक्कर में अनजाने में थोडा आगे झुक गया...

इतने में गाडी ने अचानक एक खतरनाक टर्न लिया और ईशांत का सर शीशे से जा टकराया.

“अपनी औकात में रहो, ईशांत शर्मा...” लड़की पीछे पलट कर गुर्राई, “तुम्हारे बॉस की बीवी नहीं हूँ जो तुम्हारे मासूम चेहरे पर फ़िदा हो जाउंगी...” कुछ पलों तक घायल शेरनी की तरह ईशांत को घूरने के बाद उसने गाडी की स्टीयरिंग फिर से संभाल ली.

अचानक हुए इस वाकये से ईशांत घबरा सा गया था. उसकी सांस अचानक उखड गयी थी. वह थोड़ी देर शांत रहकर सामान्य होने की कोशिश करने लगा. अक्की बेतकल्लुफी से दोनों को देखता रहा. बीच-बचाव करना वैसे भी उसके उसूलों में शामिल नहीं था खासतौर पर तब तो हरगिज़ नहीं जब उसका कोई फायदा न होता है. लेकिन दिल ही दिल में वह इस लड़की की हिम्मत पर दाद दे रहा था. वैसे भी बस में सीट के लिए रोने वाली लडकियां उसे कभी पसंद नहीं आई थी. वह भी काफी देर से लड़की का भूगोल जाने की कोशिश कर रहा था. लड़की शायद टीवी नहीं देखती थी. वरना अपने रूखे चेहरे पर एक बार तो वैसलीन मलने का ख़याल उसे आ ही जाता. वैसे खूबसूरत तो थी वो. बस अपने सांवले चेहरे से थोडा प्यार करती तो यकीनन उसकी खूबसूरती एक अलग ही मिसाल होती. लेकिन ऐसा लग रहा था जैसे उसका ध्यान अपनी खूबसूरती के बजाय कही और उलझा हुआ था. और उसका ध्यान कहाँ उलझा हुआ था ये अक्की ने बखूबी देख लिया था. उसके हाथों की कसरती मांसपेशियां कहानी के कुछ हिस्सों को तो बयान कर ही रही थी. अक्की ने अंदाज़ा लगाया कि उसका एक ज़ोरदार मुक्का किसी हट्टे कट्टे बन्दे के भी जबड़े तोड़ सकता था. अक्की जहाँ बैठा था वहां से वह उसे अच्छी तरह से दिखाई दे रही थी. उसका कसरती शरीर चीख चीख कर उस के वर्कआउट के कड़े अनुशासन की गवाही दे रहा था. “पुश-अप्स और वेट-लिफ्टिंग तो रोज़ करती होगी.” उसने सोचा लेकिन उससे पूछने की उसकी हिम्मत न हुई.

कुछ देर तक और चलने के बाद गाडी एक गेराज के आगे जाकर रुकी. लड़की बिना उन दोनों की ओर देखे चुपचाप गाडी से उतर कर अन्दर चली गयी. अक्की ने ईशांत की ओर देखा और मुस्कुराते हुए लड़की के पीछे चल दिया. ईशांत ने दोनों के देखा और खामोशी से अक्की के पीछे हो लिया.

लड़की गेराज के पिछले दरवाजे से एक छोटे से कमरे में पहुंची और एक छोटी सी लाइट जलाते हुए बोली, “बॉबी, लड़के आ गए है.”

अक्की ने आशिक़ी से और ईशांत ने कुतूहल से यह नाम सुना. लेकिन हैरत तीनों को हुई जब कोई जवाब नहीं आया. लड़की ने लाइट पूरे कमरे में घुमाई तो एक कोने में जीन्स और जैकेट पहने कुर्सी पर लुढकी हुई एक दूसरी लड़की दिखी जिसका चेहरा काऊबॉय हैट से ढका था.

“बॉबी.” पहली ने दूसरी को दूसरी बार पुकारा.

दूसरी के शरीर में हरकत हुई. उसके दाए हाथ ने चेहरे से हैट को हटाया और अपनी नींद से बोझिल आँखें लिए पूरी अंगड़ाई के साथ बॉबी उठ खड़ी हुई. उसने आगे बढ़कर एक स्विच ऑन किया और पूरा कमरा रौशनी से नाहा गया. उसी रौशनी में उसने ईशांत और अक्की को देखा और ईशांत और अक्की ने उसे.. कंधे तक झुल्के अखरोटी बाल, बड़ी बड़ी आँखें, सलोना चेहरा, नाज़ुक से होंठ और उन होंठो पर एक कातिल मुस्कान..

वह दो कदम आगे बढ़ी और अपनी जेब से एक मोबाइल निकाल कर बगल में रखी एक कुर्सी पर पैर फैला कर बैठते हुए बोली, “बड़ी देर से दर पे आँखे लगी थी... हुज़ूर आते आते बड़ी देर कर दी...”

“हाय!” अक्की सीने पे हाथ रखते हुए आह भरने लगा, “क्या कहे यारों कि हम ऐसे संगदिल से मिले... क़त्ल भी किया और जान भी बख्श दी, हम एक ऐसे हसीन क़ातिल से मिले...”

बॉबी ने मुस्कुरा कर अक्की को देखा और फिर ईशांत की ओर देखते हुए बोली, “खुशामदीद!”

“तुमने ही फ़ोन किया था न?” ईशांत ने पूछा.

“हाँ!” बॉबी ने जवाब दिया, “अगर तुम्हे जल्दी है तो हम आज से ही काम शुरू कर देते है.”

“लेकिन करना क्या है?” अक्की ने कबाड़ से एक कुर्सी निकाल कर उसपर बैठते हुए पूछा.

“डकैती...”
[क्रमशः]

Wednesday, May 20, 2015

बॉबी [चैप्टर -1]

रात के करीब डेढ़ बजे थे. वह अपने जूते घिसटता हुआ अपने क़दमों को गिनने की कोशिश कर रहा था. उस वक़्त दिल्ली-आगरा हाईवे रामदयालु-सुल्तानगंज जैसा सुकून तो नहीं दे रहा था पर करकरडूमा-राजीव चौक के शोर शराबे को चुनौती देने की खुली घोषणा ज़रूर कर रहा था. उसकी ली-वाइज़ की जींस कई जगह से उधरी हुई थी. हालांकि भरोसेमंद रही थी उसकी यह ली-वाइज़ की जींस... पिछले कई महीनों से जब से उसकी किस्मत ने उससे खुली जंग छेड़ दी थी, तब से हर मोड़ हर मौके पर उसकी इस जींस ने लोहा लेने में उसका साथ दिया था... ये अलग बात थी कि जिसने वह जींस ‘गिफ्ट’ में दी थी, उसने साथ छोड़ दिया था, लेकिन उस जींस ने उसका साथ नहीं छोड़ा था... माँ कसम पिछले कई महीनों से लगातार घिस रही उस जींस को बेशक अपनी बिरादरी के भाई-बंधुओं की शान-ओ-शौकत पर कई बार रश्क हुआ होगा लेकिन वह भी पक्की नमकहलाल... अर्र माफ़ कीजिये... डिटर्जेंट-हलाल निकली... दरअसल उसकी वह जींस समाजवाद की सच्ची पुरोधा थी. उसने अपने निर्माण के गौरवशाली इतिहास के घमंड में चूर न होकर उसकी दान और दया में मिली हर टी-शर्ट और शर्ट का एकसमान निर्विकार भाव से साथ दिया था. अगर “इंडियाज गाट वफादार” नाम का कोई टैलेंट हंट होता तो यकीनन वह जींस पहला खिताब जीत लाती.



वैसे वफादारी में तो उसके वुडलैंड के जूतों का भी कोई सानी नहीं था. उसे याद था वह दिन, जब साकेत के वुडलैंड शो-रूम में उस खूबसूरत सी सेल्सगर्ल ने इन जूतों की रसीद के पीछे अपना फ़ोन नंबर लिख कर एक हसरत भरी मुस्कराहट के साथ उसे दिया था और कैसे उसने वह नंबर देखकर गर्व के साथ कहा था – “सॉरी डिअर, आई एम् कमिटेड...”

“कमिटेड...”

अचानक रात के उस सन्नाटे में हवा बड़ी तेज़ी से उडी और रास्ते की धूल उसके मुंह पर ज़िन्दगी के एक तमाचे की तरह पुत गयी.
वह भूत से वर्तमान में आ गया था.

करीब दो बज चुके थे. रात के सन्नाटे में पिछले आधे घंटे से पैदल चलता हुआ वास अपने गंतव्य तक पहुँच गया था. पहले बार अपने क़दमों से नज़रे हटाकर उसने रौशनी से नहाए हुए उस बोर्ड को पढ़ा – “बाबूजी दा ढाबा”

वह अच्छी तरह से पहचानता था इस ढाबे को. पिछली बार अपनी हार्ले डेविडसन उसने यही खड़ी थी. बड़ी शान से... इसी ढाबे पर तो उसने यह खोज की थी कि उसे ऑस्कर वाइल्ड नहीं बल्कि नोरा रोबर्ट्स और सोफी किन्सेला पसंद थी. कैसे खिलखिला कर हंसी थी वो जब उसने उसके हैंडबैग में से “आई हैव योर नंबर” निकाली थी.
“तुम मुझे बेवकूफ बना रही थी, आजतक?” प्यार भरी नाराज़गी थी ये.
“और क्या करती?” वह मुस्कुराकर बोली थी, “ज़िन्दगी में वैसे ही इतने सारे गम है. अब अगर तुम्हारी तरह हर चीज़ में परफेक्शन तलाशना शुरू कर दू तो हो गया मेरा बंटाधार. और ऑस्कर वाइल्ड की वे सारी किताबें तो बस तुम्हे इम्प्रेस करने के लिए अपने पास रखती थी...” उसने हौले से अपनी बायीं आँख दबाते हुए कहा था.
“बड़ी चालू हो तुम तो...” उसने प्यार भरी चिकोटी काटी थी उसके गाल पर, “फंसा ही लिया तुमने मुझे अपने जाल में...”

और फिर वो हंसी... जैसे पहाड़ों से गिरती हुई वो नदी होती है न... अल्हड़ सी... ज़िन्दगी से भरपूर... कभी उधर कभी उधर... चहकती हुई सी...
उसने महसूस किया था... कैसे किसी का चहकना... महकना... ज़िन्दगी को जवान बनाए रखता है... आज बमुश्किल तीस का भी नहीं हुआ था लेकिन बेहद बूढा महसूस करता था खुद को...

कितनी अलग थी वो उससे... और कितना अलग था वो उससे... लेकिन न जाने क्या दिख गया था उसे इसमें... उसकी खनकती हुई सी आवाज़ दिन भर की सारी थकान उतार देती थी... उसके नखरे... उसकी फरमाइशें – “सुनो न इशांत...” और एक बार जो ये “सुनो न इशांत” शुरू होता तो फिर ये मुस्कुरा सुनता रहता वो चहक कर सुनाती रहती... दुनिया भर की फरमाइशें जो कभी ख़तम होने का नाम न लेती लेकिन फिर भी उसे यही महसूस होता कि कितना कम मांगती है वो उससे. उसका बस चले तो सारी दुनिया लाकर उसके क़दमों में रख दे...

कितना तरस गया था वो उस आवाज़ को सुनने के लिए... काश, एक बार वो अपनी आवाज़ में उसका नाम पुकार लेती... बस एक बार उसे आवाज़ दे देती तो उसकी ज़िन्दगी का सन्नाटा ख़तम हो जाता...

उसकी आवाज़ तो नहीं, लेकिन सामान से लादे एक ट्रक ने ज़रूर सन्नाटे को भंग किया. उसकी तन्द्रा टूटी तो उसे पता चला कि वह सड़क के बीचोबीच खड़ा था. वह एक तरफ हो गया. ट्रक गुज़र गया. गनीमत थी कि वह नहीं गुज़रा. वैसे तो उसकी ज़िन्दगी में जीने लायक कुछ ख़ास बचा नहीं था लेकिन मरने के बारे में उसने अभी सोचा नहीं था. बस एक अजीब सी उम्मीद थी जो उसे इस ढाबे तक ले आई थी.

जूते घिसटता हुआ वह ढाबे के सबसे छोर पर रखी एक बेंच पर बैठ गया. ढाबे की गहमागहमी थोड़ी कम पड़ गयी थी. एक लड़का बनियान में हाथ पोछता हुआ बाहर निकला और उसकी तरफ आया.

“क्या लेगा साहेब?” लड़के ने पूछा.
वह थोड़ी देर को अचकचा गया. उसने पूरा हिसाब लगाया था कि ढाबे तक पहुँचते पहुँचते उसे इंतज़ार न करना पड़े. लेकिन अब सोचना बेकार था. वह मुसीबत में पड़ चूका था. जेब में फूटी कौड़ी तक नहीं थी. शर्ट से पसीने की बू आ रही थी. और ढाबे वाला खैरात देने के मिजाज़ में तो बिलकुल नहीं लगता था.

“एक गिलास पानी दे, अभी. फिर बताता हूँ” उसने गला साफ़ करते हुए कहा.

लड़के ने ऊपर से नीचे तक उसे गौर से देखा. बाल थोड़े बड़े और बिखरे हुए. बिखरी हुई दाढ़ी और मूछें... कुचैली सी शर्ट और उधरी हुई जींस के साथ बड़े सोल वाले जूते. लड़के को गड़बड़ लगी. वह वहां से खिसका और जाकर मालिक के कान में कुछ कानाफूसी की.

लड़के ने जिस अंदाज़ से घूरा था उससे तो उसने ये अंदेशा लगा लिया था कि कुछ ही देर में ये सब मिलके उसे धक्के मार के निकाल देंगे. इसलिए कोई कुछ कहे इसके पहले ही वह उठने को हुआ. तभी किसी ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए जबरदस्ती वापस बिठा लिया.

“बैठो दोस्त!”
उसने चौंकते हुए उस अजनबी की ओर देखा जो उसे दोस्त कहकर बुला रहा था. आँखों पर रे-बैन टिकाये, हाथ में टाइटन बांधे, नीली टी-शर्ट और डेनिम जींस पहने वह शख्स मुस्कुरा रहा था.
इतने में ढाबे का मालिक भी पहुँच गया. उसने दोनों को घूर कर देखा. डेनिम को देखकर उसे ऐसा लगा जैसे दो दिन पहले की बनी बासी दाल मखनी में किसी ने ताज़ा तड़का लगा कर ऊपर से धनिये की पत्तियाँ डाल दी हो. वही ली-वाइज़ को देखकर उसे ऐसा लगा जैसे बासी बजबजाती पनीर भुर्जी में जी भरकर घी और जीरे की छौंक लगाने के बाद भी उसकी बदबू न गयी हो..

खैर ऐसे दृश्य तो उसकी ज़िन्दगी में रोज़ ही देखने मिलते थे. वह काम-धंधे और बाल-बच्चे वाला आदमी था इसलिए अपने एक दर्जन लठैतों के बावजूद वह आँखे और कान बंद करके काम करता था. जगमगाते ट्यूब-लाइटों की चमचमाती रौशनी में प्रतिदिन और प्रतिरात दमदमाते हुए काम करने के बावजूद जब कभी नजदीकी पुलिस चौकी में किसी अपराधी की शिनाख्त करने के लिए उसे बतौर गवाह बुलाया जाता था तो वह कई मिनटों तक घूरने के बावजूद पहचानने से इनकार कर देता था. उसे बस एक ही बात से मतलब होता था कि बस उसके ढाबे को कोई नुक्सान न हो.
और इन दो लड़कों को देखकर उसे यकीन हो गया था कि इन जमूरों से डरने वाली कोई बात नहीं है.

उस अजनबी ने ढाबे वाले को देखकर तुरंत कहा, “दो कप चाय. और साथ में बिस्किट.”

“ला रे...!” ढाबे वाला चिल्लाया और बिना किसी प्रतिक्रिया के रास्ता बदल के दूसरी ओर चला गया. छोटा लड़का तुरंत चाय लाने दौड़ पड़ा.

“तुम कौन हो?” स्थिति सँभालने पर ली-वाइज़ ने डेनिम से पूछा.

“मैं भगवान् कृष्ण हूँ. मुसीबत में फंसे भक्तों की रक्षा करता हूँ.” डेनिम ने मुस्कुरा कर कहा.

“बकवास बंद करो.” ली-वाइज़ झल्ला गयी.

“अरे गुस्सा मत करो यार! मेरा नाम अक्की है.” अक्की ने बेतकल्लुफी से कहा, “लेकिन सच बताऊ. मुझे ये देखकर दुःख हो रहा कि दुनिया में मैं अकेला सेंस ऑफ़ ह्यूमर का मालिक बचा हूँ. अब मेरी विरासत कौन संभालेगा...?”

शायद मजाक किसी को अच्छा नहीं लगा था. थोड़ी देर के लिए सन्नाटा छा गया.

“चिल यार!” अक्की ने ही शुरुआत की, “यहाँ तुम्हें मुसीबत में देखा तो हेल्प कर दी. दैट्स इट!”

“थैंक्स!” जवाब छोटा और भावहीन था.

“मोस्ट वेलकम. लेकिन बताओ, कि तुम्हारी ऐसी हालत कैसे हो गयी? एक्सेंट से पढ़े लिखे काबिल लगते हो. फिर ये हुलिया क्यों बना रखा है?”

उसने कोई जवाब नहीं दिया.

“नाम क्या है तुम्हारा?” अक्की ने फिर पूछा.

“ईशांत... ईशांत शर्मा.” और आखिरकार ली-वाइज़ ने अपनी पहचान बता ही दी.

अक्की ने कोई जवाब नहीं दिया लेकिन उसकी निगाहें ईशांत के चेहरे को ऐसे घूर रही थी जैसे कोई बाघ झपट्टा मारने से पहले हिरण के क़दमों की आहट को तोलता है. 

[दूसरी कड़ी यहाँ पढ़े - चैप्टर 2

कहानी की भूमिका यहाँ पढ़े - भूमिका ]

Friday, May 1, 2015

भूमिका

दुनिया में हर किसी को कहानी का शौक होता है. कोई कहानी सुनता है, कोई कहानी पढता है, कोई कहानी देखता है, कोई कहानी कहता है और कुछ जंतु ऐसे भी होते है जो कहानी लिखते है [जैसे कि मैं]... ये जंतु कहानीकार कहलाते है.
अब इन कहानीकारों की कहानियों की भी अलग कहानी होती है. कुछ लोग अपनी और अपने जैसी कहानियाँ कहना और सुनना पसंद करते है... ये लोग कुछ अपनी ज़िन्दगी से और अपने दोस्तों और परिचितों की ज़िन्दगी से किरदार और परिस्थितियाँ उठाते है और घुमा फिराकर कहानी लिख डालते है.
वही दूसरी प्रजाति के लोग कहानियाँ बनाना पसंद करते है. ये रचेंगे नितांत अनोखी दुनिया... अजीब से किरदार... अनजानी परिस्थितियाँ... थोडा रहस्य.. थोडा रोमांच... और इन सबका घालमेल करके लिखेंगे एक ऐसी कहानी जो साहित्यिक मापदंडों को हरगिज़ पूरा नहीं कर पाती. उदाहरण के तौर पर फिर से मैं...!
अब अपना नाम लेना ही आजकल सबसे ज्यादा उपयुक्त है. किसी और का नाम लेने पर कौन जाने कौन नाराज़ हो जाए और मानहानि का दावा ठोक दे. पता चला कि लिखने बैठे थे कहानी और पहुँच गए कोर्ट कचहरी के चक्कर में... खैर रब राखा...
हाँ तो अपने बारे में मैं ये कह रही थी कि अव्वल तो मुझे साहित्यिक कहानियां पढने या लिखने में चुटकी भर भी रूचि नहीं है. दूसरा कारण ये कि मौजूदा चलन ये है कि आपकी कहानी का साहत्यिक होना ही काफी नहीं है. उसमे रुन्दन, क्रंदन, ट्रेजडी इत्यादि होना भी उतना ही ज़रूरी है क्योंकि खुशमिजाज़ कहानियां साहित्यिक नहीं मानी जाती [ध्यान दे – संभ्रांत समाज में एक खुल कर हसी गयी हंसी आज भी छिछोरापन मानी जाती है]. अगर आप खुश है तो मतलब आपने ज़िन्दगी की गहराइयों को नहीं जाना... ज़िन्दगी से आपकी भेंट नहीं हुई.. आपमें अनुभव की कमी है... वगैरह वगैरह... और ऐसे में अगर आपने किसी खुशमिजाज़ कहानी को साहित्यिक परिप्रेक्ष्य में लिखने का फैसला किया है तो भैया सावधान! साहित्यिक आलोचकों के लिए आप आँख बंद करके नदी के किनारे पानी पी रहे मेमने से अधिक नहीं है. आगे आपकी मर्ज़ी...!
जहाँ तक मेरा सवाल है... तो रोने धोने वाली कहानियाँ लिखकर अपने पाठकों को कष्ट देने के लिए दिल गवाही नहीं देता...
अब आप कहेंगे गोया ये कहानी है कि उपदेश!
दोस्तों, ये भूमिका है... कहानी की भूमिका.. बोले तो प्रीफेस! मैंने तो पहले ही साफ़ कर दिया था कि नियम कानून पर कहानी हमसे न लिखी जा सकती है न हम लिखेंगे...अब चूंकि आपने मेरी कहानी पढने में दिलचस्पी दिखाई है और स्वयं अपने हस्तकमलो एवं नयनकमलों से मेरे ब्लॉग को कृतार्थ किया है तो मेरा फ़र्ज़ बनता है कि मैं कहानी के मिजाज़ और तेवर से आपका परिचय करा दूं ताकि आप बाद में ये न कहे कि एक बकवास कहानी को पढने समय बर्बाद कर दिया.
तो आइये जाने इस कहानी के कुछ मुख्य पहलू –
१.  कहानी का नाम है – बॉबी!
२. यह एक रोमांचक कहानी है. “कमिंग ऑफ़ ऐज एडवेंचर स्टोरी” कह सकते है आप इसे.
३. कहानी में अंग्रेज़ी शब्दों एवं आम बोलचाल की भाषा का धड़ल्ले से प्रयोग हुआ है.
४.      यह कहानी साहित्यिक दृष्टिकोण से नहीं लिखी गयी है.
५.      कहानी की शैली बिलकुल अलग है. इसमें सूत्रधार भी एक छद्म पात्र है.
६.      मैं देवकीनंदन खत्री और सिडनी शेल्डन की बहुत बड़ी प्रशंसिका हूँ. अगर कहानी में आपको उनकी छाया नज़र आये तो इसे मेरा उनके प्रति समर्पण समझे.
७.      कहानी का मुख्य उद्देश्य पाठकों को रोमांचित करना है. कहानी में केवल एक बात का ध्यान रखा गया है कि पाठकों को यह न लगे कि उनका समय बर्बाद हो रहा है.
८.      यह दरअसल एक उपन्यास है और किश्तों में प्रकाशित होगा.
९.      कहानी की कॉपीराइट सुरक्षित है.

इतनी लम्बी भूमिका को झेलने के लिए धन्यवाद!
अब चूंकि आपकी दिलचस्पी अभी तक बनी हुई है इसलिए आपका धन्यवाद! आइये कहानी के पात्रों से आपका परिचय करवा दूं.
कहानी के चार मुख्य पात्र है.
१.      नताली मैथ्यूज  


२.      अक्की



३.     इशांत शर्मा



४.      और ये है हमारी कहानी की मुख्य नायिका. हरदिलअज़ीज़ बॉबी




अब आपकी प्रतिक्रिया का इंतज़ार है. अगले पोस्ट से कहानी की शुरुआत होगी.
धन्यवाद!

[कहानी की अगली कड़ियाँ यहाँ पढ़े - चैप्टर 1 चैप्टर 2 ]