Monday, November 3, 2014

चाहत...

मुकम्मल की चाहत किसे नहीं होती..
ज़िन्दगी से मुहब्बत किसे नहीं होती..

बेरहम हालातों को गवारा नहीं होता...
वरना मुस्कुराने की आदत किसे नहीं होती...


डर होता है ख़्वाबों के टूट जाने का...
ख्वाब सजाने की हसरत किसे नहीं होती...

ढूंढ लाने वाला अगर कोई मिल जाए तो..
खो जाने की चाहत किसे नहीं होती...

Monday, September 1, 2014

चाँद की गुस्ताखी... शरारत चांदनी की...

अलसाया सा सूरज क्षितिज में खो गया 
कह के शब्बाखैर गुलमोहर भी सो गया
छिपते छिपाते मगर ‘कुछ’ कोने में भाग रहे है
जो सोये वो सोये मगर कुछ अब जाग रहे है 
ये रातरानी की अठखेलियों की घडी है 
करके नज़रें नीची रजनीगंधा हंस पड़ी है 
सुनने बैठे है सब एक दास्ताँ चाहत की
ये चाँद की है गुस्ताखी और शरारत चांदनी की...

पतंगों की हिदायत कि हर बात दायरे में हो
जुगनुओं की ज़िद कि बयान-ए-किस्सा मुशायरे में हो
लेकर करताल झींगुर शुरुआत करने पर तुले है
पत्तियों से लेकर सितारों तक के कान खुले है
दरी बिछाने को मेघों ने भेज दी है फुहारें
लकदक सी लहकती, उछलती, आई, बैठी बहारें
सुना है बड़ी ही अनोखी है ये कहानी मुहब्बत की
ये चाँद की है गुस्ताखी और शरारत चांदनी की...

फूल में बंद भँवरे की अब मिन्नतें कौन सुने
है बड़ी परेशानी कि ये किस्सा अब कौन बुने
भवें चढ़ाएं जाने क्यों कनेर अब खड़ी है
जाने किसके सर पे लगी हरसिंगार की छड़ी है
ठुनकती हुई जवाकुसुम भी देखो ज़िद पे अड़ी है
है बड़ी परेशानी ये फैसले की घड़ी है
पहले कौन बताये कब थी घड़ी नजाकत की
ये चाँद की है गुस्ताखी और शरारत चांदनी की...

गोरैया की बोली से भोर की दस्तक भी अभी हुई
अगली रात तक के लिए महफ़िल भी मुल्तवी हुई
समेट ली रजनीगंधा ने भी अपनी सारी पंखुड़ियां
उनींदी होकर गिर पड़ी अमलतास की पीली अन्कुरियाँ
है कैसा ये अनोखा किस्सा जिसके लिए सब लड़ पड़े है
नींद में भी सुनने को बेकल है सब कतारों में खड़े है
होगी नहीं कही भी कोई ऐसी चाहत खुबसूरत सी
जब चाँद ने की थी गुस्ताखी और शरारत चांदनी ने की...

- स्नेहा गुप्ता [26/05/2014, 09:30PM]

Saturday, March 8, 2014

काश...

सुमि की हिम्मत नहीं हो पा रही थी कि वह अमर से कुछ कह सके... रुलाई गले में बांधे, आंसुओं को रोके वह खड़ी थी कि अमर कुछ कहे और बात शुरू हो..
लेकिन अमर ने कुछ नहीं कहा. वह चुपचाप उठा और किचन में चला गया. सुमि भी उसके पीछे पीछे गयी. अमर ने चाय की केतली गैस पर डाली थी. भुनभुनाता हुआ लाइटर ढूंढ रहा था.
“एक चीज़ सही से नहीं मिलती...” दांत पीसते हुए कहा उसने.
“मैं बना दूं चाय?” सुमि ने हिम्मत करके पूछा.
अमर ने कोई जवाब नहीं दिया. मानो उसने कुछ सुना ही नहीं. उसने सुमि की तरफ देखा भी नहीं.
माचिस से गैस जलाई और चाय बनाकर सीधा कमरे में आ गया. पहला घूँट जैसे ही गले में गया कि खुद को कोसने लगा – “पान वाले की दूकान पर चाय पीने में इज्जत घटती है...”
कप सहित उठा और चाय ले जा कर सिंक में बहा दी.
सुमि वही पर खड़ी चुपचाप सबकुछ देखती रही. अमर की झल्लाहट उससे बर्दाश्त नहीं हो रही थी. उसे समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर उसने ऐसा कौन सा गुनाह कर दिया कि अमर ऐसे बर्ताव करने लगा मानो उसका कोई वजूद ही नहीं है. सब्र का बाँध टूट गया और सुमि के गाल भींग गए...
वह खुद में ही खोयी थी कि देखा अमर जल्दी जल्दी तैयार होकर दफ्तर निकलने की तैयारी में था. झल्लाता हुआ कभी इधर कभी उधर जाता लेकिन सुमि से कुछ न कहता...
हिम्मत करके सुमि ने ही फिर पूछा – “कहो न? क्या ढूंढ रहे हो? मुझे मालुम है तुम्हारी चीज़े कहाँ रखी है.”
अमर एक पल को रुका और उसने चारो तरफ देखा लेकिन फिर से सुमि को नज़रंदाज़ कर गया. जैसे वो सामने थी ही नहीं... जैसे उसकी बातों का कोई मतलब ही नहीं था अमर के लिए. सुमि की आँखों से एक बार फिर अश्रुधारा बहने लगी...
तभी अचानक अमर का फ़ोन बजा. अमर ने उछलकर अपना मोबाइल दराज के पीछे से हाथ घुसा कर निकाला. अच्छा तो मोबाइल ढूंढ रहा था अमर. हाँ, अक्सर दराज से नीचे गिर जाता था अमर का मोबाइल. सुमि अक्सर कहती थी दराज के भीतर या फिर मेज पर मोबाइल रखने के लिए लेकिन अमर सुने तब तो..
मोबाइल को स्पीकर पर डालकर अमर जूते पहनने लगा. फ़ोन अमर के दोस्त का था.
“निकल गए अमर?” दोस्त ने पूछा.
“बस निकल रहा हूँ.” अमर ने परेशानी से जवाब दिया.
“क्या हुआ?” दोस्त ने पूछा.
“कुछ नहीं. कुछ हो तो खाने को ले लेना. आजा खाना नहीं खाया. चाय भी बहुत बुरी बनी थी.” अमर रोआंसा होकर कहा.

क्या??? अमर ने खाना नहीं खाया था? सुमि अवाक रह गयी थी. ये वो किस दुनिया में खो गयी थी कि उसने कुछ बनाया नहीं अमर के लिए! ऐसा कभी हुआ है कि अमर बिना खाये दफ्तर चला जाए..?

“अमर, दो मिनट रुक जाओ. मैं अभी कुछ बना देती हूँ.” सुमि ने घबरा कर कहा.

अमर के हाथ रुक गए. उसने फिर ऊपर देखा लेकिन सुमि से उसकी नज़रे नहीं टकराई. उधर उसका दोस्त फ़ोन पर हेल्लो हेल्लो किये जा रहा था.
“हेल्लो अमर? अमर? हेल्लो? क्या हुआ?”
“हाँ,” अमर का ध्यान फ़ोन पर गया. उसने स्पीकर बंद करके मोबाइल उठाया.
“क्या हुआ अमर?” दोस्त ने पूछा, “अचानक से खामोश हो गए थे?”



“पता नहीं...” अमर ने आह भरकर कहा, “इतना वक़्त हो गया सुमि को गुज़रे हुए लेकिन अब भी हर पल उसे महसूस करता हूँ...” अमर अपना बैग उठाकर दरवाजे की तरफ बढ़ चुका था.

“गुज़रे हुए....”

सुमि को लगा जैसे भूकंप आया हो और अचानक उसके सर पे पत्थर गिर पड़े हो. सारा घर घूमने लगा. आँखों के आगे अँधेरा छाने लगा. 

तभी उसकी नज़र सामने दीवार पर टंगी अपनी तस्वीर पर गयी. 

काश...! वह अपनी तस्वीर पर टंगी उस माला को हटा पाती...


निवेदन महिलाओं से – आप अपने परिवार की धुरी है. स्वास्थ्य सम्बन्धी छोटी बड़ी समस्याओं को नज़रंदाज़ न करे. अपना ध्यान रखे. अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की हार्दिक शुभकामनायें...!

© स्नेहा गुप्ता 
08/03/2014 08:55pm