Thursday, May 17, 2012

सुर्ख

पार्किंग में बाइक लगाकर अभि तेज़ कदमो से पार्क के अन्दर दाखिल हुआ. काफी चहल पहल थी हमेशा की तरह. कुछ आगे चलने पर उसे मान्या दिखाई दी वहीँ पीले गुलाब की झाड़ियो के पास वाली बेंच पर बैठी हुई. उसके हाथ में परिणीता थी. लेकिन वह पढ़ नहीं रही थी ये बात अभि भांप गया क्यूंकि उसकी निगाहें किताब के पन्नो पर नहीं बल्कि कही शून्य में थी. वह उसके पास पहुंचा.

"हेल्लो मान्या." उसने हमेशा की तरह उसे चौकाने के इरादे से अचानक कहा.
मान्या ने सर तो घुमाया पर उसे देखे बिना बेंच से उठकर पीले गुलाब वाली झाड़ियो के पास चली गयी.




अभि हैरान सा उसे देखने लगा. नाराज़ थी वह. लेकिन क्यों? किस बात से?
"क्या हुआ मान्या?" उसने पास जाकर उससे पूछा बिलकुल उसकी नज़र के सामने आते हुए ताकि इस बार वह नज़रे न फेर सके लेकिन मान्या ने फिर से नज़रे घुमा ली.
"आखिर बात क्या है?" अभि ने पूछा उससे. कोई जवाब नहीं. "देखो तो, आज मैंने नीली शर्ट पहनी है और कितना हैंडसम लग रहा हु और तुमने अभी तक तारीफ़ भी नहीं की मेरी." अभि को पूरा यकीन था की यह बात सुनते ही मान्या उसकी तरफ हंस कर देखेगी ज़रूर.


मान्या ने उसकी ओर देखा लेकिन हंस कर नहीं. यह क्या? बड़ी बड़ी आँखे बिलकुल लाल लाल. जैसे मान्या रो रही हो काफी देर से.

"क्या बात है मान्या?" अभि ने थोडा घबरा कर पूछा. उसने कभी मान्या को रोते हुए नहीं देखा था.
"तुमने सारिका से बात की?" मान्या ने भींगी हुई आवाज़ में पूछा.
"सारिका से? हाँ, उसे ही तो दी थी परिणीता तुम्हे दे  देने के लिए."
"क्यूँ?"
"क्यूँ का मतलब?" अभि ने हैरानी से पूछा, "तुम्हारे कॉलेज गया था. पता चला तुम आई नहीं थी. और पार्क में भी तुम नहीं आ रही थी कई दिनों से. इसलिए मैंने तुम्हारी दोस्त सारिका को परिणीता दे दी, तुम्हे देने लिए. और तुम तो जानती हो की लाइब्रेरी में परिणीता के लिए कितनी मारा मारी चलती है. कल ही यह किताब एक लड़के ने लौटाई. मेरी नज़र पड़ गयी और मैंने तुरंत इसको ले लिया. तुमने कहा था की तुम्हे परिणीता पढनी है. इसलिए तुम्हे देने कॉलेज चला गया. सारिका को यह सोच कर दे दी की तुम तो आई नहीं लेकिन छुट्टी में इसो पढ़ तो लोगी कम से कम."
"हाँ, मैं तो मर गयी थी न! फिर आती ही नहीं कभी." मान्या फफक कर रो पड़ी.

"ये क्या हो गया है मान्या तुम्हे?" अभि हैरान था. मान्या संतुलित स्वभाव की लड़की थी और उसका इस तरह से आपा खो देना अभि के लिए बहुत अचरज की बात थी.
"ऐसी क्या बात हो गयी की तुम मेरा इंतज़ार नहीं कर सके जो  सारिका को किताब दे दी." मान्या हिचकियों के बीच बोली.
"अच्छा, तो तुम्हे लगता है की मैं तुम्हारी दोस्त के साथ फ्लर्ट कर रहा था." अभि ने थोड़े गुस्से से कहा.
"नहीं," थोड़े शांत स्वर में मान्या बोली, "मैं जानती हु तुम फ्लर्ट नहीं हो. लेकिन मुझे ये समझ में नहीं आ रहा की हमारी दोस्ती में सारिका की ज़रूरत क्यों महसूस की तुमने."
"ऐसा  नहीं है, मान्या." अभि को अब समझ में आया. तो मान्या इस बात से नाराज़ थी की उसने सारिका से बात की, "मैं सिर्फ ये किताब तुम तक ज़ल्दी पहुचाना चाहता था. बस."
"ज़ल्दी?" मान्या का स्वर फिर तेज़ हो गया, "तुम बिजनेस टूर पर थे जब मुझे ग़ुलाम अली की बहारों का बांकपन मिली. तुम्हारे सभी दोस्त आते थे पार्क में, सौरभ, अनिकेत, वरुण सब आते थे. लेकिन मैंने पंद्रह दिनों तक तुम्हारे लौट आने का इंतज़ार किया.  तुम लौटे और मैंने  तुम्हारे हाथ  में दी वो कैसेट."
"अच्छा बाबा." अभि ने गहरी सांस लेकर कहा, "गलती  हो गयी. अब कोई भी बात होगी तो सिर्फ तुमसे कहूँगा. तुम्हारी दोस्तों से नहीं." अभि उसे मनाने की गरज से मुस्कुराया.
मान्या ने अपने आंसू पोंछे. कुछ देर चुप रही. फिर अभि की ओर देखकर मुस्कुराते हुए बोली, "हाँ, हैंडसम तो लग रहे हो."
"शुक्रिया मोहतरमा." अभि खुश हो गया. मान्या उसकी बहुत अच्छी दोस्त थी लेकिन फिर भी उस जैसी समझदार लड़की का इस तरह ज़रा सी बात पर उखड जाना उसके पल्ले नहीं पड़ रहा था.

मान्या अब शांत थी. अभि ने अच्छा मौका जानकार कहा, "देखो मान्या, यह कोई बड़ी बात नहीं है. बल्कि मेरा तो मानना है की हमारे  कॉमन फ्रेंड्स होने चाहिए. मान लो कभी ऐसा हो की हमारी तुम्हारी बात नहीं हो  पाए या हम मिल न पाए तो कॉमन फ्रेंड्स के ज़रिये हम एक दुसरे के कान्टेक्ट में रह सकते है."
"कान्टेक्ट में हम वैसे भी रह सकते है. फोन से, ईमेल से, मेसेज से. चाहो तो हज़ार तरीके है न चाहो तो हज़ार बहाने." मान्या का स्वर तेज़ होता जा रहा था.
"अरे, तुम समझी नहीं मान्या," अभि ने कोशिश की उसे समझाने की, "अब जैसे मेरे जितने भी दोस्त है वो सब आपस में भी दोस्त है. इससे  फ्रेंड्स सर्किल बनता है. दोस्ती और भी ज्यादा मजबूत होती है. मैं तो कहता
हूँ की उसी तरह तुम भी मेरे दोस्तों को जानो और मैं भी तुम्हारे दोस्तों को जानू. इससे हम एक दुसरे को और बेहतर  जान पायेंगे."
"अभि," मान्या की आवाज़ फिर से भींग गयी थी, "हम दो साल से दोस्त है. क्या मैंने तुम्हे कभी परेशान किया है? कभी कोई ग़लतफहमी रखी तुम्हे लेकर?"
"अरे नहीं कभी नहीं." अभि को लगा मान्या बात को दूसरी तरफ ले जा रही है लेकिन वह रोक नहीं पाया.
"कभी तुम्हे किसी और की ज़रूरत पड़ी मुझे कोई बात समझाने  के लिए?"
"नहीं, तुम तो वैसे ही बहुत सुलझी हुई लड़की हो." अभि खुद ही उलझा जा रहा था.
"तो फिर हमारे बीच कॉमन फ्रेंड्स क्यों होने चाहिए? तुम्हे मुझसे  बात करने के लिए किसी ज़रिये की ज़रूरत क्यों महसूस होती है. क्यों कोई कॉमन फ्रेंड  चाहिए तुम्हे? क्यों आये कोई तीसरा हमारे बीच???" मान्या की आँखें बरसाती नदी की तरह बहने लगी. उसके हाथ से परिणीता छूट कर नीचे गिर पड़ी. उसने अपनी रोती हुई आँखों  से एक नज़र भर कर अभि को देखा और पीले गुलाब वाली झाड़ियो से होते  हुए पार्क के दुसरे दरवाजे की ओर चली गयी. कुछ कदम तेज़ चलने के बाद वह आँखों से ओझल  हो गयी.

अभि उसे जाते हुए देखता रहा. उसने उसे रोका नहीं. आवाज़ भी नहीं दी.
"अभि, ये मान्या थी न?" मिश्रा अंकल बोले. मिश्रा अंकल भी अक्सर पार्क में आते थे. अभि और मान्या दोस्त है, वो जानते थे.
"हाँ." अभि ने कहा.
"क्या हुआ उसे? ऐसे क्यों चली गयी?" मिश्रा अंकल ने पूछा.
अभि ने कोई जवाब नहीं दिया.
वह अभी भी उस रास्ते को ही देख रहा था जहा से अभी कुछ देर पहले  मान्या रोती हुई गयी थी.
मिश्रा अंकल अचरज से उसे देख रहे थे.
"ये कौन से रंग के गुलाब है, अंकल?" अचानक अभि ने पूछा.
"पीले गुलाब है." मिश्रा अंकल ने हैरानी से जवाब दिया.
अभि के चेहरे पर भीनी सी मुस्कान तैर गयी, "मुझे तो सुर्ख लग रहे है...."



 

Tuesday, May 15, 2012

टूटी हुई चप्पल

ऑफिस से निकलते ही किरण को महसूस हो गया था की अब ज्यादा देर चल पाना मुमकिन न हो पायेगा. वह चप्पल घिसट कर लेकिन बड़ी संभल कर चल रही थी. कही टूट न जाए. लेकिन बमुश्किल १०-१५ कदम ही चली होगी की चप्पल टूट गयी. बड़ी हताशा से उसने अपनी टूटी हुई चप्पल को देखा. खामखाँ का खर्च लग गया. अभी करीब एक महीने तक और उस चप्पल को चला लेने की योजना थी उसकी. लेकिन...

चप्पल को सिलवाने के लिए वह नुक्कड़ की तरफ मुड़ गयी.

"८० रुपये लगेंगे, बब्बी." चप्पलवाले ने चप्पल का निरीक्षण करते हुए कहा.

"८० रुपये???" किरण चौंक गयी, "चौक वाले तो ५० रुपये में सिल देते है. क्या हमें बेवकूफ समझते हो? अच्छी लूट मचा रखी है." उसने चप्पलवाले को घुड़कते हुए कहा.

"तो जाओ न बब्बी, चौक वाले से ही सिलवा लो. हमारा टाइम काहे को फ़ोकट में खराब करती हो." चप्पलवाले ने भी तुनक कर जवाब दिया.

किरण असमंजस में पड़ गयी. चौक तक जाने में १० मिनट और फिर आने में १० मिनट यानी लगभग आधा घंटा तो लग ही जाएगा. लेकिन तीस रुपये तो बच जायेंगे. तीस रुपये का मोबाइल रिचार्ज करवा ले तो १० दिन तो चल जाएगा. या फिर वह  उनसे किलो की ४ कापियां कमलेश के लिए ले सकती है.

फिर सोचने में वक़्त नहीं गंवाया किरण ने. टूटी हुई चप्पल उठा कर वह तेज़ कदमो से चौक की तरफ चल पड़ी. नुक्कड़ का चप्पल्वाला उसे देखता रहा. शायद उसे उम्मीद न थी की ये लड़की शाम के वक़्त सिर्फ चप्पल सिलवाने के लिए चौक तक जाने की ज़हमत उठाएगी. उसे पूरी उम्मीद थी की वह मनमाना दाम वसूल लेगा. लेकिन किरण को जाते हुए देखकर वह भौचक्का रह गया. एक ग्राहक खो दिया उसने. ८० के चक्कर में ५० भी गए. उसे बुलाने की हिम्मत भी नहीं जुटा सका वह.

चप्पल सिलवा कर किरण तेज़ी से स्टेशन की तरफ बढ़ रही थी. कीले लगने से चप्पल भारी हो गयी थी. किरण को चलने में बेहद तकलीफ हो रही थी. कीलो से चोट भी लग रही थी उसके पैरो में. लेकिन वह खुश थी की उसने ३० रुपये बचा लिए थे.

ऑटो में बैठते ही उसकी नज़र सूरज पर पड़ी. सूरज उसे ही देख रहा था. जैसे ही किरण ने उसे देखा, उसने मुस्कुरा कर ख़ुशी से अपना हाथ हिला दिया. जवाब में किरण मुस्कुराई. सूरज से उसकी मुलाक़ात यही कोई एक डेढ़ साल पहले हुई थी "युवा कला प्रोत्साहन मंच" द्वारा आयोजित कला प्रदर्शनी में. इत्तेफाक ऐसा की सूरज उस लड़की को ढूंढ रहा था जिसने कैनवास पर रंगों को सजीव कर दिया था और किरण को उस लड़के को ढूंढ रही थी जिसने केवल पेंसिल से एक रेखाचित्र को एक शब्दचित्र बना दिया था. चित्रकार दोनों ही थे लेकिन विधाएं अलग थी और दोनों एक दूसरे की कला के मुरीद हो गए. दोनों मिले और काफी अच्छे दोस्त भी बने. सूरज भी किरण की ही तरह मध्यमवर्गीय परिवार का लड़का था. वह दानापुर में रहता था और किरण आजादनगर में. बाद में किरण को पता चला की सूरज ने अच्छी खासी नौकरी छोड़कर अशोक राजपथ में अकादमिक किताबों और स्टेशनरी की दूकान खोली थी. अपनी जिद के पक्के और जुनूनी सूरज ने जो सोचा था वह कर दिखाया और आज वह अपनी नौकरी की तनख्वाह का दुगुना पैसा अपनी दूकान से कमा रहा था. ज़रा भी बनावटीपन नहीं था सूरज में. बेबाक ऐसा की जो बात दिल में वही बात जुबां पर. उसपर भी स्वभाव से बेहद जिंदादिल और खुशमिजाज़.  किरण को उसकी यही बाते बहुत अच्छी लगती थी. सूरज के दोस्त भी गिने चुने थे और उन्ही में से एक किरण भी थी. हालांकि आपाधापी भरी ज़िन्दगी में बाते कहा हो पाती थी उतनी. स्टेशन से दोनों ही गाडी पकड़ते थे. कभी सूरज नहीं तो कभी किरण नहीं. और कभी ऐसा हो जाए की दोनों एक दूसरे को देख ले सूरज मुस्कुरा कर हाथ हिला देता और किरण भी मुस्कुरा देती. बस ऐसे ही मिलना होता था उन दोनों का. हाँ महीने दो महीने में कभी ऐसा हो जाए की वक़्त भी हो और दोनों साथ भी तो बगल वाले चाय की दूकान पर एक कप चाय पी लेते और दो-चार बाते भी हो जाती.

सूरज के बारे में सोचते सोचते कब घर आ गया किरण को पता भी नहीं चला. ज़ल्दी से ऑटो वाले को पैसे देकर वह घर की और भागी. वैसे ही आधा घंटा देर से पहुंची थी. अन्दर पहुँचते ही उसे रसोई से आवाज़े सुनाई दी. रसोई में पहुँच कर उसने देखा, कमलेश कलछी से सब्जी चला रहा था और माँ पर झल्ला रहा था. माँ आटा निकाल रही थी और किरण पर झल्ला रही थी. बिना कपडे बदले ही किरण ज़ल्दी से रसोई में दाखिल हुई और उसने कमलेश के हाथ से कलछी ले ली. कमलेश पैर पटकता हुआ अपने कमरे में चला गया.

" कितनी बार कहा है की ज़रा ज़ल्दी घर आया कर. लेकिन नहीं. बहाना ढूंढती चलती है काम से बचने का." माँ के स्वर में नाराजगी थी.

"आज ज़रा देर हो गयी." किरण ने कहा, "तुम जाओ माँ, मैं गूंध लुंगी." किरण ने माँ के हाथ से आटे की पतीली ले ली.

"आज ही दो सूट देने है." माँ थकी हुई सी आवाज़ में बोली और रसोई से चली गयी.

सब्जी में पानी की बघार डाल कर किरण ने ज़ल्दी से कपडे बदले और आटा गूंधते हुए चाय भी चढ़ा दी गैस पर.

दो कप में चाय निकाल कर वह कमरे में पहुंची. माँ सूट पर काज कर रही थी.

"तैयार हो गयी?" किरण ने पूछा.

"अभी कहा?" माँ सचमुच थकी हुई थी, "अभी दूसरी वाली में हेम करना है."

"कर लो तुम, बस रोटी बनानी है अब." किरण बोली.

खाना खाकर माँ सूट देने के लिए चली गयी. किरण अपने कमरे में अपने कपडे सहेज रही थी की तभी कमलेश अन्दर आया, "जीजी, पैसे चाहिए." धीमी आवाज़ में बोला.

"कितने?" किरण ने पूछा.

"५००."

"क्यूँ?"

"किताबे लेनी है."

"लिस्ट बना कर दे दो, मैं लेती आउंगी कल."

कमलेश कुछ देर चुपचाप बैठा रहा, फिर धीरे से बोला, "माँ के पैसे खर्च हो गए. मैं जब कमाने लगूंगा तब तुम्हारे सारे पैसे लौटा दूंगा."

"ये देखा है क्या है?" किरण ने थप्पड़ दिखाते हुए कहा, "एक लगेगा तो सारा भूत उतर जाएगा दिमाग पर से. जा चुपचाप जाकर लिस्ट लेकर आ किताबो की."

कमलेश हँस पड़ा. किरण भी हंसी.

"प्रदीप का नया एडिशन आया है. फिसिक्स और केमेस्ट्री चाहिए."

"जो जो चाहिए लिख कर दे दो." किरण बोली.

कमलेश अपने कमरे में चला गया. और किरण अपनी पेंटिंग करने लगी. यह तस्वीर उसे परसों तक बना कर दे देनी थी. पर बहुत काम बचा हुआ था. टूटी हुई चप्पल के कारण पैरो में भी बहुत दर्द हो रहा था उसके. लेकिन काम कैसे छोड़ दे. इसी पेंटिंग के दो हज़ार मिलाने वाले थे.

अगले दिन ऑफिस पहुँचते ही किरण ने अपनी चप्पले उतर कर देखा. पैरो की त्वचा छिल गयी थी. "ये नाजुकता रईसों के लिए है. हमारे लिए नहीं." ज़रा सा चिढ़कर उसने खुद से कहा.

बाबूजी का फ़ोन आया हुआ था. उन्होंने १०,०००/- भेजे थे. बैंक भी जाना था. भला हो ईशान बाबु का. उनके रहते किरण को परेशानी नहीं होती थी बैंक
में. ईशान बाबु बहुत भले आदमी थे. अपनी नेकदिली के कारण मशहूर थे. ऑफिस से आधे दिन की छुट्टी लेकर वह सीधे खजांची रोड की तरफ गयी. शर्माजी उसे देखकर हँसते हुए बोले, "मुझे मालुम था की तुम आओगी. अभी कल ही कमलेश किताबे देखकर गया था."


"हाँ, ये लिस्ट है. ये किताबे निकाल दीजिये, चाचाजी." किरण भी मुस्कुरा कर बोली.


"लो, ३०% की काट दी है." शर्मा जी बोले.


किताबो का बण्डल उठाकर किरण ने पैसे दिए और कृतज्ञता जताते हुए बोली, "आप लोग ही है चाचाजी की हम जैसे लोग इतनी महंगाई के बावजूद पढ़ पा रहे है."


"पढने वालो को मैं भी पहचानता हु, बेटा. कमलेश खूब तरक्की करेगा, देखना."

ऐसे ही कई लोग थे जिनकी वज़ह से किरण के कुछ काम आसान हो जाया करते थे. शर्माजी जहा औरो को १०% से ज्यादा डिस्काउंट नहीं करते थे वही किरण को वह हमेशा ३०% डिस्काउंट पर किताबे देते थे. बैंक में भी ईशान बाबु की बदौलत उसे पैसे ज़ल्दी मिल गए. बाहर आते ही उसने बाबूजी को फ़ोन लगाया, "पैसे मिल गए, बाबूजी."


"ठीक, माँ को दे दो जाकर." बाबूजी ने कहा.


"बाबूजी," किरण ने झिझकते हुए कहा, "वो पिछले महीने कमलेश की फीस के लिए सरिता से ४,०००/- उधार लिए थे. अभी सिर्फ २,०००/- ही लौटाए है. इसमें से एक हज़ार ले लू? बाकी एक हज़ार अगले महीने दे दूंगी."


बाबूजी खामोश हो गए. कुछ देर तक चुप रहने के बाद बोले, "तुमसे कोई बात छुपी नहीं है, बेटा. जो सही लगे करना."


"ठीक ठीक." किरण तुरंत बात समझते हुए बोली, "सरिता समझती है. मैं अगले महीने ही दे दूंगी उसका हिसाब. आप बिलकुल चिंता मत किजिए बाबूजी."


बाबूजी का कलेजा भर आया.

माँ को पैसे थमाकर किरण अपनी तस्वीर पूरी करने बैठ गयी. अंतिम दिन बचा था. गनीमत थी माँ ने दिन में ही सब्जी बना ली थी. घर में पाव रोटी थी. किरण तस्वीर बनाती रही. पर लग नहीं रहा था की पूरी हो पाएगी कल तक. शाम हो गयी. और शाम से रात.


अगले दिन रविवार था. सुबह से ही किरण तस्वीर बनाने में जुटी रही. उसे ध्यान तब टूटा जब माँ एक सूट लिए उसके पास आई.


"कैसा है?" माँ ने पूछा.


"अच्छा है." किरण बोली, "कपडा तो मुलायम है. रंग भी खूबसूरत है. बहुत महंगा लगता है."


"सिर्फ ५०० का है." माँ बोली.


"किसका है?" किरण ने पूछा.


"है एक किरण नाम की लड़की. चित्रकार है. उसी का है. उसकी माँ ने ख़रीदा है उसके लिए." माँ मुस्कुरा रही थी.


"मेरे लिए!" किरण हैरानी से बोली, "लेकिन इतने पैसे कहा से बचाए?"


"कल भेजे थे न बाबूजी ने."


किरण ख़ुशी के मारे कुछ बोल न सकी. बच्चे माता पिता के हृदय का सार कब जान सके है!!

तस्वीर पूरी न हो पाएगी किरण को लगा. उसने वर्माजी को फ़ोन किया.


"लेकिन करार तो आज का ही था किरण. मैंने सिंघानिया साहब को बोल दिया है की आज उन्हें तस्वीर मिल जायेगी." वर्मा जी परेशानी भरे स्वर में बोले.


" मैं कल सुबह खुद आपके पास लेकर आ जाउंगी." किरण ने मिन्नत की.
वर्मा जी कुछ देर खामोश रहे. "ठीक है, आज शाम ६ बजे तक दे दो." और फ़ोन कट गया.


दिन के एक बज रहा था. किरण ने एक ग्लास पानी पिया और फिर से अपनी तूलिका उठा ली.


और आखिरकार ५ बजते बजते तस्वीर पूरी हो गयी. किरण ने उसको कपडे से ढंका और चल पड़ी वर्माजी के घर.


"बहुत अच्छे किरण." वर्मा जी बोले, "ये लो तुम्हारे पैसे."


किरण ने पैसे लेकर उसको पहले आँखों से फिर माथे से लगाया.


"एक नया कांट्रेक्ट है किरण." वर्माजी बोले, "सात सफ़ेद घोड़े शाम के समय पानी में दौड़ते हुए. ६०००/-"


"कब तक?" किरण ने पूछा.


"१० दिन."


"ज़रूर." किरण ख़ुशी से बोली.

ओह्ह! ये टूटी हुई चप्पल! किरण की इच्छा हुई की कीले निकाल कर फ़ेंक दे. मगर क्या करती! अचानक  उसे ध्यान आया की उसने सुबह से कुछ नहीं खाया है.


लिट्टी वाले के ठेले के पास खड़े होकर उसने पूछा, "एक प्लेट कैसे?"


"५० रुपये." लड़के ने जवाब दिया.


"५० रुपये??" किरण को झटका लगा, "कल तक ही तो ४० था आज ५० हो गया. अंधेर मचा रखा है. खूब कमाते हो तुम लोग. खूब लूटते हो."


"हाँ, हाँ. हम लोग ही तो लूटते है. ये जो नेता करोडो अरबो लूट कर खाते है उनको कोई कुछ नहीं कहता. लेकिन हम ५ रुपये कमाई के रखे तो अंधेर मच जाता है. एक लिट्टी पर मुश्किल से दो रुपये बचते है. और उस पर हम लोग ही लूटेरे है." लड़का शायद भरा बैठा था, किरण के बोलते ही फूट पड़ा.
किरण को उसकी आवाज़ में अपनी बात सुनाई दी. "अच्छा, एक प्लेट लगा दो, भाई." वह बोली. उसे सचमुच 
जोर की भूख लग गयी थी.


वह पैसे निकाल रही थी की लड़के ने प्लेट उसके सामने रख दी.


"५ लिट्टियाँ? एक प्लेट की तो ४ आती है न?" किरण ने आश्चर्य से पूछा.


"खा लो दीदी. आशीर्वाद दे दो." लड़के ने स्निग्ध वाणी से कहा.


किरण को दया हो आई उस पर. सारे दिन धुप में खड़े होकर लिट्टियाँ बनाता और बेचता था वह. फिर दिल में इतनी दया और इतनी इंसानियत.


"मौर्यालोक से भी बड़ा होटल होगा एक दिन तुम्हारा, देखना." किरण मुस्कुरा कर बोली. लड़के के चेहरे पर भी हंसी आ गयी.

घर की तरफ जा ही रही थी की न जाने क्या इच्छा हुई की किरण गंगा घाट की तरफ मुड़ गयी. गंगा आरती में वक़्त था अभी. घाट पर ज्यादा लोग भी नहीं थे. किरण चप्पले उतार कर अपने पैर पानी में डाल कर बैठ गयी. ठन्डे पानी के स्पर्श ने उसके ज़ख़्मी पैरो पर मरहम का काम किया.
उसे लगा की उसकी ज़िन्दगी भी तो इस कीले लगी हुई टूटी चप्पल के ही जैसी थी. भारी और तकलीफदेह. इसके विपरीत कितना शांत था गंगाजी का पानी. कितना सुकून था वहाँ पर. इसी सुकून की तो किरण को भी तलाश थी. थोडा सुकून जिसके साथ वह अपनी परेशानियां भूल जाए. बहुत ज्यादा आरामतलब जीवन नहीं चाहिए था उसे. बस थोड़े सुकून के पल ज्यादा हो. और क्या. 

वह चप्पले पहन कर चलने को हुई की तभी एक छाया  देखि. पीछे कोई खड़ा था.

"सूरज तुम?" वह हैरान थी उसे देखकर, "कब आये?"


"अरे मैं तो काफी देर से हु." सूरज हंसकर बोला. "अरे" उसका तकियाकलाम था. हर बात की शुरुआत वह "अरे " से करता था. "अरे, आओ बैठो कुछ देर, फिर चले जाना."


किरण मना नहीं कर पायी.


"अरे, और सब कुछ कैसा चल रहा है?" सूरज ने ही पूछा.


"ठीक है सब." किरण बोली, "नया कांट्रेक्ट मिला है." किरण ने अपनी तकलीफों के बारे में सूरज को कुछ नहीं बताया था. उसे पसंद नहीं था अपना दुखड़ा रोकर किसी की दया बटोरना. "तुम बोलो." उसने सूरज से पूछा.


"अरे मेरा भी सब ठीक. अभी परीक्षा है न. पीक सीजन है. जिस्ता की डिमांड ज्यादा है."


"अच्छी बात." किरण बोली.


"अरे, मैं तो भूल ही गया." अचानक सूरज बोला, "ये देखो, मैंने तुम्हारी तस्वीर बनायी थी." कहते हुए उसने एक कागज़ अपनी शर्ट की जेब से निकाल कर किरण के हाथ में थमा दिया.


किरन ने देखा, उसका रेखाचित्र था. वह सम्मोहित सी देखने लगी.


"तुम्हारी आँखे बनाने में सबसे ज्यादा वक़्त लगा. तुम्हारे जैसी आँखे बन ही नहीं पा रही थी. बहुत कोशिशो के बाद बनी. तुम नाराज़ तो नहीं हो न?"
 

नाराज़ क्यों न हो? सूरज की हिम्मत कैसे हुई उसकी तस्वीर बनाने की? वह भी उससे बिना पूछे? किरण के जी में यही सवाल आने को थे. लेकिन आ नहीं रहे थे. उसे चाहकर भी गुस्सा नहीं आया सूरज पर.
 

"कितना वक़्त बर्बाद किया इस पर?" उसने एक अजीब सा सवाल पूछा सूरज से.


"बर्बाद? अरे, तुम्हारी बहुत सारी तस्वीरे बनायीं है मैंने. लेकिन यह तस्वीर सबसे अच्छी है. इसलिए इसे हमेशा अपने साथ रखता हु. कई दिनों से सोच रहा था तुम्हे दिखाने के लिए. लेकिन वक़्त ही नहीं मिल पा रहा था. इत्तेफाक से देखो की आज मिल गयी तुम. और इस तस्वीर को तो पूरी रात जाग कर बनाया है मैंने. मैंने कहा न बहुत मेहनत लगी इसे बनाने में."

किरण हैरानी से सूरज को देख रही थी. उसे लगा की उसकी टूटी हुई चप्पल, जो कीले लगने से भारी हो गयी थी, अचानक बिलकुल हलकी हो गयी है....